सच कहता हूं
मिलूंगा मैं
हारमोनियम की
उन श्रुतियों पर
जिनसे जागता है
सबके भीतर सोया गायक।
मिलूंगा मैं
उस खास पल में
जहां बोल को तेजी से दौड़ कर जकड़ लेती है
तबले की थाप
या सारंगी के उस आखिरी नोट में
जो उदास राग का साथ देकर
कुछ देर चुप हो जाती है
मिलूंगा खंडहरों के उस सन्नाटे में
जहां कोई भी शब्द अकेला होते हुए भी
गूंजता है चहूं ओर
मुझे मिलना उस समय
जब अलविदा में हाथ हिला रहे हों दुख
या अंतत: समझ आ रहे हों दर्द…..
आया मैं और तुम भी मिले
तो हम बदलेंगे इस शहर का खाका
यहां चालाकियों के लिए बनाएंगे अलग से ठिकाना
मासूमियत का होगा अपना कमरा
उदासियों के लिए एक कोना
हंसी के लिए रखेंगे एक बरामदा
और कहेंगे समय से
कुछ देर वह न बीते
हमें बीतने दे
क्योंकि
फर्क बीतने से नहीं
उसके अंदाज से पड़ता है
मिलना मुझे बुरांस के फूलों में
जुटाएंगे थोड़ी लाली जर्द चेहरों के लिए
अभी इतना बोझ है खुद का
कि रेत पर छप रही हैं
पैरों की अंगुलियां
अभी मत मिलो मुझे
मुझे मिलना
घास उगाती किसी पुरानी दीवार के साये में
उससे सीखेंगे
जो जड़ होकर भी उगने देती है अपने भीतर से
हरी कोंपलें
ऐसी दीवारों को शायद नहीं देख पाए हों
खुद को मिटाने की सलाह देने वाले बुल्लेशाह
गो कि हमें मिलना ही है
इसलिए
मुझे मिलना
जब तुम्हारे पीछे न भाग रहीं हों उम्मीदें
मैं भी मिलूंगा तब
जब
मेरे चलने से धरती पर नहीं छप रहे होंगे सबके पैर
तुमसे वादा है मैं मिलूंगा
तुम भी मिलना
हम मिलेंगे।
-नवनीत शर्मा